Monday, September 7, 2009

प्रभास जोशी जी के नाम दूसरा खुला पत्र

परम आदरणीय प्रभास जोशी जी,
सादर प्रणाम,

बिहार के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में इन दिनों उपचुनाव का माहौल है। इस कारण 5 सितंबर यानि शिक्षक दिवस के अवसर पर आपकी वंदना नहीं कर सका। इसका मुझे दुख है और मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। परंतु मेरी भी एक मजबूरी थी। मजबूरी यह थी कि आपके इस एकलव्य ने जिस मिट्टी से आपकी मूर्ति बनायी थी, ठीक शिक्षक दिवस के अवसर पर ही उसी मिट्टी ने विद्रोह कर दिया। इसका फौरी परिणाम यह हुआ कि मेरे द्रोणाचार्य यानि आपकी प्रतिमा खंडित हो गयी। परिणामस्वरूप मैंने एक नयी ऐसी मिट्टी का जुगाड कर लिया है ताकि आपकी एक नयी प्रतिमा का निर्माण कर सकूं जोें आपके नये स्वरूप से विद्रोह न कर सके। मैं जानता हूँ आप जिस ऊंचाई पर बैठे हैं वहां से इस एकलव्य की तपस्या तो दिखेगी नहीं वरन् हम एकलव्यों की मूढता, अज्ञानता, अपसंस्कृति और रूदन अवष्य दिखती है।इस तथ्य को यों भी समझा जा सकता है कि जो व्यक्ति जितनी ऊंचाई पर बैठा होता है उसके नीचे वाला उसे छोटा ही दिखाई देता है। यही कारण रहा कि बृहद्रथ राजा होने के बावजूद पुश्यमित्र शंुग की उंचाई को भांप न सका और अंततः मारा गया। पहले आप मुझे द्रोणाचार्य सरीखे लगते थे परंतु अब मुझे पक्का यकीन हो गया है कि आज के पुश्यमित्र शुंग है जिसके हथियार में वही वैदिक पैनापन है जो हम शूद्रों का समूल नाश करने की योग्यता रखता है। प्रमोद रंजन जी की आलोचना करते हुए आपने उन्हें नये अलंकारों से अलंकृत किया है। आपके इन अलंकारों ने यह साबित कर दिया है कि आप अब हम दलितों और पिछडों की तेज हो रही आवाज के प्रति गंभीर हो गये हैं। यही कारण है कि बजाय शूद्रों द्वारा उठाये गये सवाल के बदले आपने अपने मित्रधर्म को ज्यादा प्रमुखता दी है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि आप अब बहस से भागने लगे हैं। आप और बहस एवं बहस और जागृति सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। जबसे मैने अपनी आंखों से इस समाज को देखना शुरू किया, तभी कोई उपाध्याय, कोई श्रीवास्तव, कोई नारायण और कोई किसी पांडेय ने मुझे यह अहसास करा दिया कि हे एकलव्य तुम महाभारत काल के एकलव्य नहीं बल्कि आज के बाजारू ब्राहम्णवाद के नये प्यादे हो। मैंने भी आपके इसी बाजारू ब्राहम्णवाद के सिद्धांत को हथियार बनाकर लडने की कोशिश की। खैर मैं बात कर रहा था आप और बहस की तो आप और बहस दोनों ही जरूरी हैं हम जैसे एकलव्यों के लिए। क्योंकि आप जितने मुद्दों को जन्म देते हैं उससे हमारा ही भला होता है।कई मौकों पर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि खबरें और विज्ञापन दोनों दो चीजें नहीं बल्कि एक ही चीज है। जिसका विज्ञापन उसकी खबरें। आप गौर फरमायेंगे तो आजकल अखबारों में विज्ञापन या तो बडे उद्योगपति/व्यवसायी देते हैं या फिर जनता के पैसे के बल पर अपनी ईमानदारी को चैक-चैराहों पर नीलाम करने वाले सत्ताधारी दल। कोई भी आम व्यक्ति विज्ञापन क्यों देगा जो उसकी खबर लगेगी। आपको स्मरण होगा कि बिहार में लालू राज जिसे आप जैसे द्रोणाचार्यों ने जंगलराज साबित किया था। उन दिनों यदि राज्य के किसी भी हिस्से में किसी महिला का कत्ल होता था या बलात्कार होता था तब वह प्रथम पृश्ठ की खबर बनती थी। हम एकलव्यों को उस वक्त भी कोई हैरानी नहीं होती थी और आज भी नहीं होती है जब ऐसी घटनायें सरेआम घटती हैं और उन्हें अखबार के प्रथम पृश्ठ क्या अखबार में एक इंच भी जगह नहीं मिलती है।आपने जिस प्रभात खबर के बारे में कसीदे पढे हैं उसके बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। पिछले कुछ दिनों पहले इस अखबार में बिहार में जो दिखा शीर्शक से कुछ आलेख पढने को मिले। इन आलेखों के रचनाकारों के नाम से ही स्पश्ट हो जाता है कि ये आपके कौरव और पांडवों के वंषज हैं। खैर एक कौरव अथवा पांडव ने लिखा कि बिहार में सडकों की स्थिति में व्यापक सुधार हुआ है। अपनी बात साबित करने के लिए लेखक ने कई आंकडे भी दर्षाये हैं। मैं इस बात को इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मैंने इन दावों को झुठलाने वाले तथ्यों के साथ एक आलेख प्रभात खबर के समाचार समन्वयक को दिया। देना तो मैं आपके पांडव यानि स्वयंप्रकाष को चाहता था । प्रभात खबर के कार्यालय पहुंचा तो खबर मिली कि वे सम्मानित होने मारीषस गये हैं। खैर आपके पसंदीदा अखबार के समाचार समन्वयक ने मेरे आलेख को अभी तक इस काबिल नहीं माना है कि वह प्रभात खबर के किसी पृश्ठ पर जगह पा सके।खैर आज के नीतीष कुमार के षासन को आप सभी दिल से सराह रहे हैं क्योंकि आप जैसे सवर्णों का इसमें अहम योगदान है। इसके लिए आप आलोचना के नहीं बल्कि बधाई के पात्र हैं क्योंकि 15 वर्शों से लालू नामक एक मसखरे (इस मिट्टी के लाल को यही नाम दिया है बिहार के सवर्णों ने) ने सत्ता के गलियारे से दूर रखा। आज जब कुर्मी को ताज और भूमिहार को राज मिला है तो भूमिहारों के साथ जुगलबंदी करने वाले पत्रकारिता जगत में कुंडली मार कर बैठे सवर्णों को तो बिना मांगे ही सब कुछ मिल गया। उत्तरप्रदेष में मायावती सत्ता लोभ में वह कर बैठी हैं जिसका अंदेषा भी किसी षूद्र को नहीं था। इसके अलावा अमर सिंह की छत्रछाया में मुलायम सिंह यादव का षूद्र प्रेम भी दम तोड रहा है। यानि हर जगह आपके ब्राहम्णवादी व्यवस्था मजबूत हो रही है। ऐसे में आप षंखनाद करेंगे ही। हम षूद्र तो बस अपने लालू, नीतीष, रामविलास, मायावती और मुलायम की मूढता पर अफसोस ही कर सकते हैं।आपने एक प्रमोद रंजन को नयनसुख नहीं कहा है बल्कि हम स्वीकार करते हैं कि हम सभी एकलव्य नयनसुख ही हैं। क्योंकि हमारे पास न तो कोई द्रोणाचार्य है और न आज का प्रभाश जोषी जो हमारे चक्षुओं में ज्ञान की ज्योति डाल सके। इसके लिए केवल आप ही जिम्मेवार नहीं है बल्कि हमारे षुक्राचार्यों का भी भरपूर योगदान है। आपके द्वारा प्रमोद रंजन की आलोचना सकारात्मक है अथवा नकारात्मक इसका सत्यापन करना अभी समयानुकूल नहीं है।आपसे विनम्र प्रार्थना है कि हम शूद्रों के बारे में अपनी टिप्पणी जारी रखें ताकि हम जैसे एकलव्य शतांश ही सही सीखते तो रहें।

आपका एकलव्य
नवल किशोर कुमार
ब्रह्मपुर, फुलवाशरीफ, पटना-801505

2 comments:

  1. वाह भाई, खुद को एकलव्य भी बता रहे हो और द्रोणाचार्य की मूर्ती भी खंडित कर दी ! कलयुगी एकलव्य ही कहूंगा, अन्यथा सतयुगी एकलव्य अंगूठा तो क्या, गर्दन काट गुरु चरणों में अर्पित करने को तत्पर था ! उसे क्यों खामखा बदनाम किये जा रहे हो !

    मुझे क्षमा करना, हो सकता हैकि मैं भी वही तथाकथित ब्राह्मण हूँ जो जोशी जी है इस्ल्ये उन्ही का पक्ष ले रहा हूँ , अगर मैं भी सूद्र होता तो आपका पक्ष लेता ! लेकिन हम लोग यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते है कि चूँकि जब हम सूद्र है इसलिए एक ब्रह्मण के कटु बचनो से कुपित होकर अपना पक्ष रख रहे है लेकिन यह क्यों नहीं सोचते कि जब हम अपना पक्ष इतनी मजबूती से रख सकते है तो वह (ब्रह्मण ) क्यों नही अपना पक्ष रख सकता है !

    मैंने पिछली दफे भी जैसे कहा था कि इंसान ब्रह्मण और शुद्र जन्म से नहीं, कर्मो से होता है ! आप अपने कर्म उच्च रखिये बस, कोई भी माई का लाल आपको शुद्र नहीं कह सकता और अगर अप्रत्यक्ष तौर पर ऐसा करता भी है तो जाय साला भाड़ में, सोच यह हो कि मेरे अपने कर्म सही है , दूसरा क्या बोलता है उससे मुझे क्या ? दुनिया गई भाड़ में !

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  2. आदरणीय गोदियाल जी,

    मुझे नहीं मालूम कि आप किस प्रांत से संबंध रखते हैं। आपके विचारों से लगता है कि आपने मेरे एकलव्यपन के एकपक्ष को ही देखा है। मैंने अपने पत्र में जोशी जी की मूर्ति को खंडित स्वयं नहीं किया है बल्कि उनके दंभ के कारण उनकी मूर्ति स्वयं ही टूटकर बिखर गयी है। वह तो मैं एकलव्य हूँ जो उनकी खंडित मूर्ति को सहर्ष पुनः एक बार फिर जोडकर नयी प्रतिमा बना रहा हूँ।
    मैं जानता हूँ कि हम शूद्रों को अपने कर्म पर विश्वास करना चाहिए और यकीन मानिये मैं जो कर रहा हूँ वह मेरा कर्म ही है वर्ना मैं भी अन्य की तरह मनुवादी प्रभास जोशी जी के प्रवचन न केवल सुनता बल्कि उनका अनुसरण भी करता। मेरे विचार जोशी जी के खिलाफ नहीं बल्कि उनकी मनुवादी सोच के खिलाफ है। भारतीय पत्रकारिता में भीष्म पितामह के नाम से आदर पाने वाले जोशी जी आज फिर वही गलती दूहरा रहे हैं जो कभी देवव्रत भीष्म ने किया था। चुंकि ये सवर्ण हैं इसलिए सवर्णों की ही बात करेंगे। जब ये अपना स्वभाव नहीं बदल सकते हैं तो हम शूद्र क्यों बदले?
    रही बात शूद्रों को उनकी हाल पर छोड देने की तो यह अब संभव नहीं है क्योंकि हम शूद्र यह जान चुके हैं कि आजादी तो प्रभास जोशी जैसे सवर्णों को ही मिली है ताकि इनके मन में जो आये बोल सकें और लिख सकें। इन्होंने अपने एक आलेख में कहा भी है कि इनकी पहुंच बहुत दूर तक है। इनका यह भी कहना है कि 5 प्रधानमंत्री इनके मित्र रहे हैं। इसके अलावा दर्जनों मुख्यमंत्रियों से इनके नजदीकी संबंध है।
    मुझे आश्चर्य होता है जब एक सिपाही चोर से दोस्ती करता है। यही कहावत जोशी जी भी चरितार्थ कर रहे हैं। एक पत्रकार किसी नेता के साथ नजदीकी संबंध बनाता है तो जाहिर सी बात है मित्रधर्म अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अर्थप्रेम उसकी लेखनी को प्रभावित करेगी ही। मैं आपको एक उदाहरण देना चाहता हूँ। हमारे पटना में एक वीआईपी पत्रकार हैं। कहने को तो ये शूद्र हैं परंतु शायद ही कभी इन्होंने अपने शूद्र धर्म का पालन किया हो। इस महानुभाव का नाम श्रीकांत है। आजकल ये नीतीश कुमार के सबसे अधिक करीब हैं। पहले ये लालू के करीब थे परंतु एक अंतर है। लालू के साथ संबंध रहने के बावजूद इन्होंने लालू के लिए अपने मित्रधर्म का पालन नहीं किया। और आज नीतीश के साथ मित्रधर्म का पालन इस अंदाज में कर रहे हैं कि पढने वाला शायद ही कभी समझ पायेगा कि उंची पगार पाने वाला, अपने घर से टेम्पो पर बैठकर हिन्दुस्तान जाने वाला, स्वयं को दधिचि साबित करने वाला यह मानुष सवर्ण नहीं शूद्र है।
    आपने जिन कर्मों के बारे में कहने का प्रयास किया है उसका मतलब यह नहीं होता कि हम वही लिखें अथवा कहें तो सवर्ण कहते और लिखते आये हैं। यदि आप ऐसा सोचते हैं तो निस्संदेह मुझे पूरा यकीन है कि आपके चश्मे में ही खोट है।

    नवल किशोर कुमार

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