कुछ बेचैन लोग, क्षुधाग्नि की ज्वाला में जलकर भी, ठंढी आहें भरते हैं, इस इत्मिनान के साथ,चलो, कल की न सही, आज का इंतजाम तो हो ही गया।
कपडा
कुछ बेचैन लोग, स्वयं एक फटी लंगोट पहनकर भी, अपनी नवयौवना बेटी को इज्जत के साथ, ढंकना चाहते हैं,इस विष्वास के साथ, चलो, आज न कल ही सही, इज्जत सलामत रही, तो किसी न किसी खूंटे से बंध ही जायेगी।
मकान
कुछ बेचैन लोग, दो गज जमीन और, एक अंगुल आसमान के लिए, आजीवन तरसते हैं, इस विश्वास के साथ, चलो, मरने के बाद ही सही, कब्र में जगह मिले ना मिले, कुछ बेचैनों के काम तो आ ही जायेंगे।
नवल किशोर कुमार ब्रहम्पुर, फुलवारीशरीफ, पटना पिन-801505 मो0-9304295773
New Definition of Fraudism by Nitish Kumar
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By Abu Abrahim
बैरी हवा
पश्चिम से चली हवा, वातावरण में उदासी लाती है, लहलहाते गेहूँ की बालियों में, दाने रह-रह कर दम तोड़ते हैं, खेत की पगडंडी पर ठूँठे पेड़ तले बैठा, हताश किसान हवा को कोसता है। मन की पीड़ाग्नि क्षुधाग्नि को, धीरे-धीरे शह देती है, चेहरे पर पछिया के थपेड़े, जीना मुश्किल कर देती हैं, वातानूकुलित कमरे से अनजान, वह बेजान ठठरी का आदमजाद, जो विज्ञान के शब्दकोषों से अनिभिज्ञ है, अपने बच्चों के तन पर, स्पष्ट दिखती हड्डियों को देख, वह बैरी हवा को कोसता है। वह अन्नपूर्णा उसकी अपनी धरती माँ, उसे अपने धानी आँचल में, आश्रय देना चाहती है, पछिया के तेज बयार को सोख, अपना संपूर्ण ममत्व उड़ेलना चाहती है, लेकिन,नित दिन असहाय होता, उसका अपना अस्तित्व, उसे आत्मबलिदान करने से रोकता है, वह किसान बैरी हवा को कोसता है।
आप तमाम पाठकों से अनुरोध है कि यादव समाज से जुड़ा कोई भी समाचार हो उसे मेरे निम्नांकित पते पर अवश्य भेजें। याद रख़ें ये फ़ारवर्ड कभी हमारे नहीं हो सकते हैं।
नवल किशोर कुमार दूरभाष-09304295773 ईमेल-nawal9334307215@hotmail.com
अपने समाज को आगे बढाने की मुहिम है आपका आईना
(यादव जी कहिन) पिछड़ों और दलितों के समस्याओं और इस वंचित समाज को आगे ले जाने हेतु कृत संकल्पित डा राम आशीष सिंह (यादव) ने एक पत्रिका की शुरूआत की है। हम इस संग्रहणीय एवं प्रेरणादायी पत्रिका के महत्व्पूर्ण अंशों को प्रकाशित करेंगे। आप चाहें तो इस पत्रिका को प्राप्त करने के लिये हमारे पते पर संपर्क कर सकते हैं।
Truth of our participation in India (by Yogenda Yadav)
POLITICAL representation faces a paradox in contemporary India. On the one hand, the practice of representative democracy for over half a century has led to a widening of the pool from which political representatives are recruited, accompanied by a reduction in the mismatch between the social profile of the representatives and those who are represented. This deepening of representative democracy coexists, on the other hand, with a thinning of the very idea of representation. The institutional designs for filtering claims to representation, devices for popular control over elected representatives, and the mechanisms for linking the policy agenda of representative institutions with the needs and desires of the represented have not kept pace with democratic upsurge from below. Progress on ‘Who is the representative?’ is accompanied by a step back in ‘What does the representative do?’ A focus on these two questions takes our attention away from ‘What gets represented?’, the foundational concern of political representation. The intensity of the paradox is matched by our collective inability to look simultaneously at both sides that constitute this paradox, resulting in an avoidable divide in our public responses to the quality of Indian democracy.1 One set of observers note, quite accurately, the broadening of the base of political representatives, thanks to the inauguration of the constitutionally protected third tier of democracy.2 One need not rely upon the moving but episodic tales of the revolutionary dalit mahila sarpanch to register the staggering expansion in the number of political representatives – from about 4000 MPs and MLAs in the country to well over 30 lakh elected representatives in panchayat and nagarpalika bodies. Clearly, an expansion of this order cannot but change the social profile of the elected representatives, bringing it closer to the social profile of the electors. This expansion coincides with and reinforces a noticeable shift in the social profile of the elected representatives in the upper tiers as well.3 The stranglehold of the Hindu upper caste elite, well versed in the language and protocols of modern democracy, has loosened to yield some space to the elite from the non-dwija and often non-dominant ‘backward’ communities, especially in the Hindi heartland. This has contributed to the confidence of the political leaders from lower social order and their chances of claiming some of the highest positions in our representative democracy. The spectacular and justly celebrated rise of leaders like Mayawati or Lalu Prasad Yadav becomes the public face of this social transformation.4 On a narrow reading, divorced from issues of substantive agenda and policy consequences, this transformation appears as nothing short of a social revolution through the ballot.5
Another set of observers of Indian democracy focus, quite appropriately, if narrowly, on the representation, or rather the lack of it, of popular issues and concerns in the political and policy agenda. It does not take much to register the ‘distance’ of political representatives from those they seek to represent, resulting in a routine sense of popular frustration. This frustration gets reflected in the voluble complaints about political corruption and the very high attrition rate, arguably one of the highest in democratic systems, of the incumbent MPs and MLAs in the Lok Sabha and assembly elections.6 Ordinary citizens feel that they are at the mercy of political leaders, unable as they often are to contact, let alone control, their elected political representatives. (..........to be continued in next post)
नवल किशोर कुमार की कवितायें
बीती रात के सपने
सूरज के निकलने से पहले, जब अंधेरा अपना विनाश देख, अपने हिस्से का अंतिम अंशदान दे, रंगमंच से भागने लगता है, और छोड़ जाता है अपने पीछे, कभी न सुलझने वाले, प्रश्नों के ऊँचे पहाड़, बीती रात की रहस्यमयी बातें, और भी बहुत कुछ, ज्यों भूखे पेट सोये गरीबों की, आँखों में पलते सपने, सपने कुछ नया करने को, सूखी रोटी की जगहगर्म दूध और रोटी का सपना, या फिर सत्तु और गुड़ का सपना, कभी अर्द्धनग्न बच्चों के तन पर, ’फैन्सी कपड़” पहनाने की तमन्ना, अपनी टूटी झोपड़ी को,ईंट का खंडहर बनाने का सपना, लेकिन, काश कि रात बीतती नहीं, उसके सपने सजीव रहते, जैसे ज़िंदगी कायम है, दो रोटी खाकर भी, जैसे तैसे इस आस में, कि कभी तो दिन बीतेगा, और रात आएगी ही, फिर से अपनायेगी प्रकृति उसे, सपने फिर से जगायेंगी, आरज़ू उसके दिल में, कल का इंतज़ार करने के लिए, ताकि वो फिर दिन में, मर सके वो पूरे दिन, मात्र झूठे सपनों के लिए।
नसों में जब बहती है
नसों में जब बहती है, ख़ून के क़तरों के बदले, बर्फ की एक तरल धार, तब मनुष्य तज देता है, जीने का अपना अधिकार। तन के अनल से, मन को झुलसा कर, जब आम आदमी, टूटती साँसों को रोकने का, असफल प्रयास करता है, फिर एक अंतर्ग्नि, खत्म हो चुकी मोमबत्ती के जैसे, भक से बुझ जाती है,और बेजान शरीर, करता रह जाता चीत्कार।
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